– वाणी की शिव-शरणागति –
हे मेरी प्यारी वाणी ! क्या अब भी बनी रहेगी अयानी ? अब तो हे सुभगे ! बन जा सयानी ! त्याग दे विषय-भोगों-की विषमयी कहानी ! गाना आरम्भ कर दे शिव की सुधामयी कथा सुहानी ? जब तक तू जगत् के गीत गाती रहेगी तब तक तुझे स्वप्न में भी शान्ति नहीं मिलेगी ; पन्च फैसला करना छोड़ दे, वाद-विवाद करना त्याग दे, तर्क-वितर्क करती हुई बाल की खाल कब तक खीचाँ करेगी ? जितना बकवास करेगी, उतनी ही दुःखी होगी सुखी कभी नहीं होगी। सुखी तो शिव का गान करने से ही होगी, बेकन स्पेन्सर की फिलॉसफी पढ़ने से विक्षेप के सिवा अन्य कुछ हाथ नहीं लगेगा, कल्याण तो शिव-ग्रन्थों के अध्ययन करने से ही होगा। क्या तूने नहीं पढ़ा कि देवर्षि नारद वेद-वेदांग, इतिहास-पुराण आदि बहुत से ग्रन्थ पढ़ चुके थे और समस्त विद्याओं में कुशल थे, फिर भी उनको लेशमात्र भी शान्ति प्राप्त नहीं हुई। उल्टे अशान्ति बड़ गयी जब उन्होंने भगवान् सनत्कुमार से शिव-तत्व का उपदेश लेकर भूमारूप शिव को भजा, तभी उनको शान्ति प्राप्त हुई। इसलिये हे वाणी ! अब अन्य सब कथाएँ छोड़कर शिव-कथा पढ़ने का अभ्यास कर। सब मन्त्रों का त्याग करके शिव-मन्त्र का निरन्तर प्रेमपूर्वक आदर-सत्कार सहित जप किया कर। शिव-भक्तों के पावन चरित्र पढ़कर। सब प्रकार के गीतों को तिलान्जलि देकर शिव के ही गीत गाया कर। यही कल्याण का मार्ग है, इसके सिवा अन्य कल्याण का मार्ग नहीं है। जो शिव को भजते हैं, वे निश्चय शिव को ही प्राप्त होते हैं और जो स्वरूप संसार को भजते हैं वे अन्धकूप संसार में करोड़ों जन्मों तक पड़े अनेक प्रकारके कष्ट उठाते हैं। इसमें श्रुति, स्मृति, युक्ति और विद्वानों का अनुभव प्रमाण हैं। इसलिये हे वाणी ! विषय-भोगों का नाम लेना तज दे और कल्याण रूप शिव को भज ले ! शिव का नाम लेने में खर्च कुछ नहीं हैं, परिश्रम भी कुछ नहीं हैं, सहायता की भी आवश्यकता नहीं है, विशेष बुद्धि भी नहीं चाहिये, जीभ हिलाने का काम है। चिल्लाकर जप, धीरे-धीरे जप, बहुत ही धीरे जप अथवा जीभ भी मत हिला, भीतर ही भीतर जप। सब प्रकार से सुलभ है, लाभ अक्षय है, सब दुःख दूर हो जायेंगे समस्त चिन्ताएँ कर्पूर हो जायेंगी। अद्भुत आनन्द आवेगा, देह तक की भी सुध भूल जायगी, आनन्द-सागर में मग्न हो जायगी। इसलिये हे वाणी ! शिव-शिव कहती हुई शिव में लीन हो जा !
– हाथों की शिव-शरणागति –
हे प्यारे हाथ ! अब तक तू लम्बे-चौड़े हाथ मारता रहा, पर कुछ भी तेरे हाथ न आया ! कोयले की दलाली में हाथ काले ही हुए, अन्य कुछ स्वार्थ सिद्ध न हुआ। अब तू किसी के सामने हाथ मत फैला, शिव के सामने ही फैला; किसी का बहुत चित्र खींच चुका मिला कुछ नहीं, हाथ ही मलने पड़े; शिव का चित्र खींचता तो लोक-परलोक दानों सुधर जाते ? रेखागणित देखकर रेखाएँ ही खींचता रहा, उस बिन्दु को तूने आज तक न जाना जिस बिन्दु में से श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य ये तीन रेखाएँ प्रकट होती हैं, उन्हीं शाश्वत शिवकी प्रतिमा बनाकर अब तू पूज, तभी तेरा कल्याण होना सम्भव हैं, नहीं तो संसार चक्र में घूमता हुआ बारम्बार यमराज का ग्रास ही होता रहेगा। शान्ति कभी भी नहीं पावेगा, शान्ति तो शिवलिंग के पूजन से ही होगी। शैवतन्त्रों में, स्थल पर, मणि, सुवर्णादि का शिवलिंग बनाने का आदेश है, फिर भी मिट्टी के लिंग का ही सबसे अधिक माहात्म्य है, इसलिये मृणमय लिंग ही तुझे बनाना चाहिये। जिसे अलौकिक मिट्टी में से ब्रह्मा से लेकर स्थावर-जंगम सभी आकृतियाँ कल्पना मात्र से बनायी गयी हैं, शैव लोग उसी अद्भुत मिट्टी के बने हुए शिवलिंग का पूजन करते हैं। जिस सत्यरूप त्रिकालबाधित शिवरूप मृत्तिका में से अनन्कोटि ब्रह्माण्ड शराबों के समान बने हुए हैं, जिस मृत्तिका का ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते इत्यादि श्रुतियाँ वर्णन करती हैं, उसी मृत्तिका का शिवलिंग बनाकर ‘शिव-शिव-शिव करता हुआ, शिव का आलिंगन करता हुआ शिव में ही लीन हो जा।
– पैरों की शिव-शरणागति –
हे प्यारे पैर ! बहुत पैर फैलाये, अब तो मत फैला ? बहुत उछला, कूदा, फाँदा, घूमा; अब उछलना, कूदना, फाँदना और घूमना छोड़ दे ? दौड़-धूप करने में सिवा हानि के लाभ कुछ नहीं है, चलना-फिरना क्या है ! पैर तोड़ना ही है। वे ही अधिकारी धन्य हैं, जो कैलास-मन्दिर में जा पहुँचे हैं ! वे ही सुकृति प्रशंसनीय हैं, जो कैलासपावन मन्दिर में शिव के साथ निवास करते हैं। उन्हीं का जन्म सफल है, जिनका घर कैलास है, जो स्वयं प्रकाश है, स्वयं ज्योति है और स्वयं सिद्ध है। जिन्होंने उस धाम को नहीं देखा, नहीं सुना और वहाँ जाने का यत्न भी नहीं करते, उनका जन्म निष्फल है, भाररूप है, माता को उन्होंने व्यर्थ ही कष्ट दिया है। मनुष्य जन्म का यही लाभ है कि कैलास की यात्रा करे, वहाँ की सैर करे, कैलासवासी शिव के दर्शन करे। वेदवेत्ताओं का कथन है कि रूद्र नामक परमात्मा सदा ही कैवल्य में अर्थात् अखण्ड एकरस आत्मा में विलास करते हैं, उनके भक्त भी सदा ही उस कैवल्य को प्राप्त होकर स्वयं प्रकाश हो जाते हैं। इस प्रकार सदा ही उसी कैवल्य का विलास बना रहने में सकल जगत् को सुख देनेवाले शम्भु का वासस्थान, सदा ही कैलास के समान् स्वयं प्रकाशमान् बना रहता है, और अनन्त-कोटि भक्तों की भीड़ हो जाने पर भी वहाँ का कैवल्य नष्ट नहीं होता। हे पैर ! यदि तू सदा के लिये सुखी और स्वतन्त्र होना चाहता है, तो उसी कैलास की यात्रा कर, वहाँ ही जा पहुँच और ‘शिव-शिव-शिव’ कहता हुआ वहीं सर्वदा के लिये ठहर जा। वहाँ ठहरने से ही तेरा चलना समाप्त होगा, ‘कोस का चलना भी बुरा है’-यह विद्वानों का वचन है। जब तक चलता रहेगा पैर थकाता और दबवाता ही रहेगा इसलिये पैर थकाना और पैर दबवाना अब छोड़ दे और कैलास को ही अपना नित्य घर बना ले, वहीं पैर फैलाकर सदा के लिये सो जा।
-कानों की शिव-शरणागति –
हे भाई कान ! अब तो छोड़ दे अज्ञान, बन जा सुजान ! सुरदुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर भी और सन्त-महात्माओं का संग करके भी यदि तू विषय भोगों की अमरकथा ही सुनता रहा और शिव-पार्वती की अमरकथा नहीं सुनी, तब तो तू बहिरा ही अच्छा था, संसारियों की दन्तकथा सुनकर संसार-अन्धकूप में तो नहीं पड़ता। वृद्ध पुरूषों का कथन है कि जिस कान ने शिव की अमरकथा नहीं सुनी, वह कान भूत-प्रेतों का मकान है और जो शिव की अमरकथा सुनता है, वह कान देवताओं के रहने का दिव्य स्थान है। अमरकथा सुनने सुनाने के लिये ही अद्वितीय एक ही शिव अपनी माया से शिव और पार्वती दो रूप धारण करके उत्तराखण्ड में अमरकथा कहते और सुनते रहते हैं, यही उनकी क्रीडा है। वहीं चलकर शिव की अमरकथा सुन, उसे सुनकर तू भी अमर हो जायगा। यदि तू कहे कि वहाँ तो कोई जा नहीं सकता , जो कोई वहाँ जाता है, उसे शिवजी शाप देकर पुरूष से स्त्री बना देते हैं, तो यह बात नहीं है। अनाधिकारी पुरूष ही शिव जी के शाप से स्त्री हो जाता है, अधिकारी पुरूष को शिवजी शाप नहीं देते। वह तो अमर ही हो जाता है, यह बात शुकदेवजी के दृष्टान्त से सिद्ध है, अमरकथा सिंहिनी के दूध के समान है। जैसे सिंहिनी का दूध सुवर्ण के पात्र में ही ठहरता है, अन्य पात्र को फोड़कर निकल जाता है, इसी प्रकार अनाधिकारी पुरूष के हृदय में अमरकथा नहीं ठहरती, फोड़कर निकल जाती है। भाव यह है कि विषयासक्त पुरूष शिव-तत्व को समझ नहीं सकता, उसको शिवतत्व शून्य और नीरस जँचता है। इसलिये शिव तत्व को न समझने से वह भोगों को ही रसरूप जानकर उनमें ही आसक्त होता हैं, भोगों में आसक्त होने से उसे भिन्नता ही रूचती है और भेद-बुद्धि होने से वह भयरूप संसार को ही प्राप्त होता है। भोगों में आसक्त होना, भेद देखना और जन्म-मरणरूप भय को प्राप्त होना- यही पुरूष से सी बन जाता है। विषयासक्त भेददर्शी ही स्त्री है, चाहे वह स्त्री हो या पुरूष। और विरक्त अभेददर्शी ही पुरूष है, चाहे स्त्री हो और चाहे पुरूष, इसीलिये विषयासक्त पुरूष को अमरकथा सुनने का अधिकार नहीं है। विरक्त बहिन-भाईयों को ही अमरकथा सुनने का अधिकार है। विरक्त बहिन-भाई तो शिव-पार्वती के क्रीडास्थान में शुकदेवजी के समान निःशंक होकर चले ही जाते हैं और अमरकथा सुनकर अमर हो जाते हैं। संसारियों को वहाँ जानेसे डर लगता हैं, वे अमरकथा के अधिकारी भी नहीं हैं। इसीलिये पूर्व आचार्यों ने कहा हैं कि अभय में भय देखने वालों को निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति असम्भव है। हे कान ! भय मत मान, भवानी-शंकर के क्रीड़ास्थान में जाकर ही अमरकथा पान कर ! यदि ऐसा नहीं कर सकता, तो शुकदेवजी की कही हुई अमरकथा में मन लगाकर ‘शिव-शिव-शिव’ सुनता हुआ ताल, स्वर और सरगम को लाँघकर ‘सम’ हो जा। कृष्ण-कथा और शिव-कथा में भेद नहीं है, शिव ही कृष्ण है, और कृष्ण ही शिव है, इसमें रन्चमात्र भी सन्देह नहीं है। शिव के ही राम, कृष्ण,विष्णु आदि अनेक नाम हैं।
– आँखों की शिव-शरणागति –
हे दिव्यदृष्टि वाली आँख ! इस मिथ्या दृश्य को आँख फाड़-फाड़कर कब तक देखती रहेगी ? जहाँ देखेगी, वहीं सृष्टि दिखायी पड़ेगी, अन्त कभी नहीं आवेगा ! जहाँ दृष्टि रोकी कि सृष्टि समाप्त हुई। ‘जहाँ’ दृष्टि वहाँ सृष्टि’ यह वेदवेत्ताओं का वचन प्रमाण रूप है। समस्त पदार्थों में लाल रंग अग्नि का है, श्वेत रंग जल का हैं, और काला रंग पृथ्वी रूप हैं, इसलिये समस्त पदार्थ अग्नि, जल, और पृथ्वी रूप हैं इन तीनों के सिवा जगत् कही नहीं है, क्योंकि वाणीमात्र से कहने में आता है, वस्तुरूप नहीं है। जैसे सब पदार्थ अग्नि में कल्पित हैं। इसी प्रकार अग्नि आदि सदाशिव रूप परमात्मा में कल्पित हैं, इसलिये अग्नि आदि मिथ्या हैं और एक अद्वितीय शिव ही सत्य हैं। इसीलिये तत्ववेत्ता इस जगत् की श्मशान से उपमा देते हैं और शिव को श्मशानवासी कहते हैं। जहाँ मृतक रहते हैं उस स्थान का नाम श्मशान है। इस जगत् में सब मृतक ही रहते हैं इसलिये जगत् श्मशान है। इस श्मशान रूप जगत् को शिव ने अपनी सत्ता से व्याप्त कर रक्खा है, इसलिये यहाँ के मुर्दे चेतन दिखाई देते हैं। जो आँख इस श्मशान रूप जगत् में भी जीते-जागते शिव को देखती हैं, वही सच्ची आँख है और जो आँख श्मशान को चेतन करने वाले शिव को नहीं देखती किन्तु जगत् रूप श्मशान को ही देखती है, वह आँख अंधी आँख है अथवा मोर के पंख की आँख के समान निरर्थक हैं। श्रुति कहती है कि ईश्वर के देखने से जगत् बना है और श्रुति यह भी कहती है कि आत्मा आँख में दिखायी देती है। इन दोनों श्रुतियों से सिद्ध है कि जगत् ईश्वर की आँख में है। और ईश्वर जगत् की आँख में है। युक्ति भी है कि दर्पण में पड़ा हुआ मुख का प्रतिबिम्ब मुख से भिन्न नहीं होता किन्तु जल और तरंग के समान अभिन्न ही होता है। इसी प्रकार शिव से भिन्न जगत् नहीं है, और जगत् से भिन्न शिव नहीं है। फिर भी शिव की माया से मोहित पुरूषों की छायारूप दर्पण में पड़ा हुआ शिव का प्रतिबिम्ब जगत् तो दिखायी देता है और बिम्बरूप शिव दिखायी नहीं देते, यह आश्चर्य है ! जगत् में शिव का दर्शन न होने से भेद दिखायी देता है, भेद दीखने से राग-द्वेष होता है, राग-द्वेष ही संसार रूपी अनर्थ का कारण है। हे आँख ! गुरू-शास्त्र के उपदेश से भेद देखना छोड ़दे अनेक में भी एक शिव का ही दर्शन कर और पश्चात् अनेक का देखना छोड़कर एक शिव का ही दर्शन कर इसी में कल्याण है, भेददृष्टिवाले होने से ही सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि और मृत्यु समर्थ देव अबतक चक्र में हैं। इसलिये हे आँख ! जगत् देखना छोड़कर ‘शिव-शिव-शिव’ देखती हुई अग्नि,सूर्य, चन्द्ररूप त्रिनेत्रधारी शिव के नेत्रों में सदा के लिये प्रवेश कर जा।
– नाक की शिव-शरणागति –
हे सुहानी नाक ! सचमुच तू ही इस शरीर की नाक है, तुझसे ही इस शरीर की शोभा है,यदि तू न हो तो इस शरीर की सुन्दरता ही न रहे। तू शरीर ही की शोभा नहीं है। किन्तु चराचर प्राणियों की भी तू ही शोभा है, क्योंकि नाक वाला ही लोक में शिष्ट समझा जाता है। जो नाकवाला नहीं होता, उसकी लोक में प्रतिष्ठा ही बिगड़ जाती है। यदि तू ही नहीं होती तो भक्ष्याभक्ष्य चाहे जो कुछ खान लगता। जैसे तेरी माँ पृथ्वी समस्त विश्व को भोजन वसन देकर पालती है’ इसी प्रकार पृथ्वी की बेटी तू भी भक्ष्याभक्ष्य का ज्ञान करा के लोकों की रक्षा करती है। प्रथम तू गन्ध द्वारा भोजन के गुण-अवगुण बताती है, पीछे जिव्हा भोजन का स्वाद बताती है, इसलिये तू जिव्हा से श्रेष्ठ हैं, इसी कारण महेश्वर ने तुझे ऊपर और प्रत्यक्ष रखा है और जिव्हा को नीचे और गुप्त रक्खा है जिव्हा से एक गुण तुझमें और भी अधिक है कि तू वस्तुका गुण दूर से ही बता देती है, जिव्हा तो वस्तु से संसर्ग होने पर उसका गुण बताती है। सारांश यह है कि तू प्राणियों के बड़े काम की है और शिष्ट पुरूषों की शोभा और प्रतिष्ठा जो कुछ है,तू ही है। जिसके नाक नहीं, वह न शिष्ट है, न प्रतिष्ठित है। शिष्ट और प्रतिष्ठित पुरूष और स्त्रियों को उत्तम कर्म करते हुए अपनी नाक की रक्षा करनी चाहिये, यही बात दिखाने के लिये सुमित्रानन्दन रामानुज लक्ष्मणजी ने शूपर्णखा की नाक काटकर सबको शिष्ट और प्रतिष्ठित होने की शिक्षा दी है। वेदवेत्ता तुझे घ्राण और गन्धवहा नाम से पुकारते हैं और मैंने तो एक विद्वान के मुख से ऐसा सुना है कि क नाम सुख का है, अक नाम सुख के अभाव यानी दुःख का है और जहाँ अक यानी दुःख न हो, उसका नाम नाक है। यही अर्थ मुझे रूचता है, क्योंकि शिव में दुःख नहीं हैं, इसलिये शिव ही नाक हैं। जैसा कारण होता हैं वैसा ही कार्य होता हैं, इसलिये शिव में से प्रकट हुई तू भी नाक ही हैं, इसी से सब तुझ से ही अपनी शोभा समझते हैं। हे सुभगे ! नाकरूप शिव की शक्ति होकर तुझे गन्दी न होनी चाहिये। इसलिये अब तू मायिक गन्धां का त्याग करके ‘शिव-शिव-शिव’ सूँघती हुई लीन होकर अक्षय शोभन गन्ध सर्वदा के लिये हो जा।
– मन की शिव-शरणागति –
हे भाई मन ! क्या तुझे मालूम नहीं हैं कि तू शिव ही का अंश है ? शिव की अद्भुत शक्ति है ? भगवान् का गीता में वचन है कि इन्द्रियों में मैं मन हुँ। शिव का अंश होने से ही तू क्षणभर में पाताल से सत्यलोक में पहुँच जाता है। वेदवेत्ताओं का कथन है कि मन त्रिगुणमय और सत्वगुण की विशेषता वाला है। वेदवेत्ताओं का यह कथन लोकदृष्टि से है, नहीं तो तू त्रिगुणमय होते हुए भी तीनों गुणों से अतीत है। हे मन ! तू जड़-चैतन्य मिश्रित है, जब तुझ में तमोगुण अधिक हो जाता है, तब जड़ता अधिक हो जाती है और जब तुझ में सत्वगुण अधिक हो जाता है जब जड़ता थोड़ी हो जाती है। तेरे जड़भाग से मोहमय जगत्-भ्रम दिखायी देता है और उसी भाग से विषयों का ग्रहण होता है। जिस पदार्थ को तू देखता हैं, उसी के आकार का हो जाता है। तमोगुणी पदार्थ को तू देखता है, उसी के आकार का हो जाता है। तमोगुणी पदार्थों का ध्यान करने से तू तमोगुणी, रजोगुणी पदार्थों का ध्यान करने से रजोगुणी और सत्वगुणी पदार्थों का ध्यान करन से सत्वगुणी हो जाता है। जब तू वृत्तिहीन, निरालम्ब, शान्त, स्थिर और निर्विषय होता है, तब निर्मल से भी निर्मल सुप्रशान्त महामोनी शिव स्वरूप ही हो जाता है। जब ऐसा है, तो हे मन तू त्रिगुणमय कहाँ है ? जब तू जगत् का ध्यान करता है, तब जगन्मय हो जाता है और जब तू शिव का ध्यान करता है तब शिवमय हो जाता है। जगत् में अनेक पदार्थ हैं, अनादि काल से तू जगत् में घूम रहा है, अब तक तुझे शान्ति प्राप्त नहीं हुई, हो भी कहाँ से ? कहीं ओस में स्नान हो सकता है, न मरूजल से प्यास बुझ सकती है। इसलिये हे मन ! अनर्थकारी नीरस भोगों का ध्यान छोड़ दे ! विषयों में सुख नहीं हैं, सुख और शान्ति तो शिव में ही है। जिन महाशम्भु में करोड़ों ब्रह्माण्ड रूण्डमाला के समान लटक रहे हैं, उन्हीं सत्य निरन्जन एक महादेव का ध्यान कर। नाम-रूप को छोड़कर महेश्वर में ही रति कर, उन्हीं में प्रेम कर, उन्हीं में तृप्ति मान, उन्हीं में सन्तुष्टि हो ! संसार असार है, हर का आराधन ही सार है ! यदि शम्भु को न भजा, तो जन्म, यज्ञसूत्र, विद्या और कमण्डलु से क्या लाभ है ? स्वप्न में, जागते में शम्भु का ध्यान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और जीव माया से तर जाता हैं, इसलिये हे मन ! ‘शिव-शिव-शिव’ ऐसा ध्यान करता हुआ शिव में लीन होकर अमन हो जा !
– प्राण की शिव-शरणागति –
हे प्यारे प्राण ! तुझे वेद सबसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ बताता है और है भी ऐसा ही, क्योंकि तू अहंकारादि को संघट्ट करके इस संघात को चला रहा है। हिरण्यगर्भ भगवान् की तू एक कला है। जैसे सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्माण्ड को धारण कर रहे हैं, इसी प्रकार तू इस शरीर को धारण कर रहा है अथवा यों कहना चाहिये कि तू एक ही अनेक होकर अनेक शरीरों को धारण कर रहा है, जब सब इन्द्रियाँ थककर सो जाती हैं तब तू अकेला ही जागता रहता है, खाये-पिये को पचाकर सब इन्द्रियों का पोषण करता है, बिना सोये सौ वर्ष तक काल भगवान् से युद्ध किया करता है, इसलिये तू इस पिण्ड में और ब्रह्माण्ड में सबसे श्रेष्ठ है और यदि तू इस शरीर का राजा नहीं भी नहीं है, तो भी प्रधान या मन्त्री तो है ही, इसमें संशय नहीं है। कोई-कोई विद्वान् तुझे जड़ बताते हैं, परन्तु जड़ नहीं है? चेतन ही है। विद्वानों ने जो तुझे जड़ बताया हैं, वह उनका कथन शिव का स्वरूप बताने की अपेक्षा से है। जैसे सूर्य की छाया धूप सूर्य के समान ऊष्ण ही है, इसी प्रकार शिव का श्वास तू शिव के समान चेतन ही है। वेद कहता है कि ब्रह्म के लिये नमस्कार हैं। हे वायु ! तुझको नमस्कार है। तू प्रत्यत्र ब्रह्म है। तुझे मैं प्रत्यक्ष ब्रह्म कहता हूँ, सत्य कहता हूँ, ऋतु कहता हूँ। इस श्रुति से भी तू चेतन है ऐसा सिद्ध होता है, इसलिये हे प्राण ! अब तू संसार की तरह वहन करना छोड़ दे और शिव की ओर को वहन करता हुआ ‘शिव-शिव-शिव’ श्वास-प्रश्वास में बोलता हुआ शिव में जाकर ही स्थिर हो जा।